
उत्तराखंड : एक समय था जब देवों की इस धरती पर सीटी बजाने और जोर से चिल्लाने तक की मनाही थी
हिमालयी क्षेत्रों में निर्माण के लिए पर्यावरण विभाग से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने में भी कहीं न कहीं चालाकी की जाती है। लोक निर्माण विभाग के अनुसार, उत्तराखंड राज्य स्थापना से पूर्व यहां सड़कों की लंबाई 19,453 किमी थी। राज्य स्थापना के बाद बीस वर्षों में 39,504 किमी हो गयी है। 100 किमी से अधिक दूरी की सड़क बनाने के लिए पर्यावरण विभाग की ओर से एनवायर्नमेंटल एस्सेमेंट इम्पेक्ट (ईएआई) के कठोर नियम हैं। इन्हें एक ही लंबी सड़क न दिखाकर छोटी छोटी सड़क परियोजनाओं में बांट दिया जाता है।
साथ ही सड़कों की चौड़ाई में भी राज्य सरकार अपने ही द्वारा निर्धारित मानदंड को दरकिनार करने में भी गुरेज नहीं करती हैं। एक किमी सड़क निर्माण में 20 से 60 क्यूबिक मीटर मलबा (धूल-मिट्टी) निकलता है। चारधाम सड़क परियोजनाओं सहित इतनी लंबी सड़क निर्माण में कितना मलबा एकत्र हुआ होगा, इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। पहाड़ी इलाकों में मलबा सीधे नदी क्षेत्र में डाल दिया जाता है, जिससे नदी में गाद बढ़ने से बाढ़ की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। हिमालयी क्षेत्रों में सड़क निर्माण की अनुमति दी जाती है तो वहां डायनामाइट से विस्फोट कर सड़कें बनाई जाती हैं। सीधे-सीधे इसका असर पर्यावरण पर पड़ता है।

आज हेलीकॉप्टरों और निर्माणों का शोर से दहल रहा पहाड़
हिमालय के अति संवेदनशील क्षेत्र में जहां हमारे बुजुर्ग देवों की धरती पर सीटी बजाने और जोर से चिल्लाने की भी मनाही का सख्ती से पालन करते थे, आज उसी संवेदनशील हिमालय क्षेत्र में न केवल हेलीकॉप्टर गड़गड़ा रहे हैं, बल्कि बड़ी बांध परियोजनाओं के निर्माण के दौरान जो शोर होता है, उसके परिणाम हम सबके सामने हैं। लंबे समय से पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रहे पर्यावरण सचेतक विनोद जुगलान कहते हैं, हमें होश तब आता है, जब कोई बड़ा हादसा हो जाता है। वह भी कुछ दिन के लिए, जब तक आपदा की यादें ताजा रहती हैं। उसके बाद फिर हम नींद में सो जाते हैं।
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पहाड़ों में प्रकृति कहर बरपा रही है
पहाड़ों में प्रकृति लगातार प्राकृतिक आपदाओं के जरिए कहर बरपा रही है। राज्य के पहाड़ी जिलों रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, जोशीमठ के बाद अब चमोली जिले के घाट विकासखंड के बाजार में बीते माह बाजार में अतिवृष्टि की घटना से जहां दुकानें क्षतिग्रस्त हुईं, वहीं दूसरी ओर चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी के गांव रैणी के लोग ऋषि गंगा का जलस्तर बढ़ने के कारण पलायन कर गुफाओं में आश्रय लेने को मजबूर हुए।
आपदाओं से क्या सबक सीखा
लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि हमने इन आपदाओं से क्या सबक सीखा? वर्ष 2013 के जून में आई जल प्रलय के बाद भी हमारी सरकारें वैज्ञानिकों, ग्रामीणों की आवाज यहां तक कि न्यायालयों के आदेशों को भी नहीं सुन पा रही हैं।
हम विनाश को ही जन्म दे रहे हैं
जुगलान कहते हैं, हिमालय की ऋषि गंगा क्षेत्र में हिमस्खलन से हुई तबाही की बात हो या पिंडर नदी घाटी में पूर्व में आई बाढ़ या फिर 90 के दशक में उत्तरकाशी में आया विनाशकारी भूकंप या इससे पूर्व नदी घाटियों से उपजी बाढ़ की विनाशकारी लीला। कारण लगभग सभी के एक जैसे ही हैं और परिणाम भी एक जैसे ही हैं। आखिर सभी विनाश को ही जन्म दे रहे हैं।
आपदाओं की बड़ी वजह बांध हैं
वर्ष 2013 में न्यायालय के आदेशों पर हिमालय के संरक्षण के लिए गठित उच्च स्तरीय समिति में सरकार की ओर से दिए गए हलफनामे में सरकार ने भी माना है कि उत्तराखंड हिमालय क्षेत्र में आकस्मिक आने वाली इन आपदाओं का कारण बांध परियोजनाएं भी हैं।
एक भी ग्लेशियोलॉजी सेंटर नहीं बना
दूसरा बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल यह भी है राज्य स्थापना के 20 वर्षों बाद भी हम राज्य में एक भी ग्लेशियोलॉजी सेंटर स्थापित नहीं कर पाए, जो हिमालयी क्षेत्र हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स से पहले यहां की सूक्ष्म जानकारी एकत्र कर अध्ययन के बाद अपनी रिपोर्ट जारी कर सके। वाडिया इंस्टीट्यूट सेंटर देहरादून में इसे बनाने की अनुमति दी गई थी, लेकिन गत वर्ष करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी इसे रोक दिया गया।
पूजा करने के बाद काटते थे पेड़
बात चाहे धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर हो, लेकिन यह सत्य बात है कि हमारे वेद पुराण हमारे पूर्वज भी मानते आए हैं कि प्रकृति देवी है पहाड़ देवता पेड़ पौधों को भी देवताओं का स्थान दिया गया है। हमारे पूर्वज घरों के निर्माण के लिए काटे जाने वाले पेड़ों का एक दिन पूर्व पूजन करते थे। उन्हें वनराज से अनुमति लेकर ही काटा जाता था।