“मौलिक अधिकारों का न हो हनन ” – दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए तर्क दिया कि, एक बंदी को संविधान के अनुच्छेद 22(5) के तहत अपनी नजरबंदी का आधार जानने का मौलिक अधिकार है। इसका संचार उसकी ही भाषा में करना चाहिए।
पीठ ने कहा जिस भाषा को समझे उसमें ही समझायें
दरअसल न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल की अध्यक्षता वाली पीठ ने स्पष्ट किया कि अगर एक कैदी, अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा में सिग्नेचर कर लेता है या लिख लेता है तो ये हरगिज जरूरी नहीं है कि, वो उसकी उस भाषा पर अच्छी पकड़ हो। ये ध्यान देने योग्य बात है कि, उसके पास उस भाषा का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। पीठ ने कहा कि, जहां तक हिरासत के आदेश में केवल संदर्भ में केवल दस्तावेजों का महत्व है तो कैदी को हिरासत में लिए जाने के कारण अनिर्वाय रूप से बताया होगा। बता दें कि, तस्करी विरोधी कानून के तहत याचिकाकर्ता के बेटे को एहतियात के तौर पर अवैध हिरासत में लिया गया था। जिसके खिलाफ एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी जिसपर सुनवाई करते हुए पीठ ने यह टिप्पणी की।
मौलिक अधिकारों का न करें उल्लंघन
पीठ ने स्पष्ट किया कि, अगर हिरासत में रखे गए बंदी को केवल मौखिक रूप से हैं समझा दिया जाता है। तो ये काफी नहीं होगा। अगर कोई कैदी पढ़ा-लिखा नहीं है तो उसे उसकी समझने वाली भाषा में ही समझाना चाहिए। अनुच्छेद 22(5) के तहत एक बंदी का मौलिक अधिकार है। इसके साथ ही अदालत ने फैसला सुनाया कि याचिकाकर्ता का पुत्र 10 वीं कक्षा में ड्रॉप-आउट था और हिंदी स्कूल में पढ़ता था। उसे हिरासत में रखा गया। लेकिन आदेश उस भाषा में नहीं दी गई, जिसे वह समझता है। यह संवैधानिक जनादेश का उल्लंघन है।