बांस बरेली से स्मार्ट सिटी बरेली तक
बरेली। राजा बांसदेव और बरलदेव का शहर-बरेली। एक दौर था जब बरेली को केवल झुमके, सुरमे के लिए जाना जाता था। वक्त बदला तो झुमके, सुरमे के साथ जरी-जरदोजी ने भी देश दुनिया में अपनी पहचान बनाई। अब बरेली की पहचान स्मार्ट सिटी के रूप में होती है। ऐसा स्मार्ट सिटी जो आसपास के जिलों में मेडिकल और एजुकेशन हब के रूप में भी जाना जाता है।
बरेली के एजुकेशन हब बनने की कहानी भी शानदार है। शिक्षा की कहानी 1950 से शुरू करते हैं। इस दौर को देखने वाले बताते हैं कि बरेली में परंपरागत शिक्षा के लिए एकमात्र केंद्र बरेली कॉलेज ही हुआ करता था। जहां एडमिशन की मारामारी मची रहती थी। तब तकनीकी या प्रबंधन शिक्षा का नामोनिशान नहीं था। लड़कियों के लिए कोई अलग कॉलेज नहीं था। इस कमी को पूरा होने का वक्त आ गया था लड़कियों के लिए 1955 में एक स्कूल के रुप में खुला साहू राम स्वरुप कॉलेज 1965 में कॉलेज बन चुका था और लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा के दरवाजे खुल चुके थे पर विज्ञान की पढ़ाई के लिए केवल बरेली कॉलेज ही विकल्प था। सीटें सीमित और उच्च शिक्षा पाने के लिए छात्रों की संख्या बढ़ती जा रही थी। 70 के दशक में विश्वविद्यालय की मांग जोर पकड़ी। महीनों संघर्ष और एक युवक की मौत के बाद रुहेलखंड विश्वविद्यालय की नींव 1974 में पड़ चुकी थी। इसके बाद 80 के दशक में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के प्रति रुझान बढ़ा पर देशभर में चुनिंदा सरकारी संस्थानों में ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई होती थी। एडमिशन की प्रतिस्पर्धा इतनी अधिक थी कि लोग इसकी तुलना आज के सिविल सर्विसेज में सफलता से करते हैं।
1995 के बाद आया एजुकेशन सेक्टर में बूम
रुहेलखंड विवि बन तो गया था पर अभी प्रोफेशनल कोर्स नहीं खुले थे। अस्सी के दशक में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के प्रति छात्रों का क्रेज बढ़ने लगा। प्रोफेशनल डिग्री हासिल पाने के लिए छात्र दक्षिण भारत के प्राइवेट कॉलेजों की ओर रुख करने लगे। यह सिलिसला करीब 10 साल चला। 90 के दशक में सरकार का एहसास हो गया कि अब सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेजों के भरोसे नहीं रहा जा सकता है। एआईसीटीई ने राष्ट्रीय स्तर पर प्राइवेट कॉलेजों का रोल स्वीकार किया। बदलाव की शुरूआत हो चुकी थी। श्रीराम मूर्ति इंस्टीट्यूट आफ इंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी को उत्तर प्रदेश का पहला सेल्फ फाइनेंस कॉलेज बनने का गौरव हासिल हुआ। इसके बाद इन्वर्टिस, रक्षपाल बहादुर, खंडेलवाल कालेज, फ्यूचर कालेज, एएनए, राजश्री समेत तमाम कालेज खुलते चले गए।
145 बरसों से मुस्कान बांट रहे शहर के डॉक्टर
बरेली के डॉक्टर 145 साल से मरीजों को मुस्कान बांट रहे हैं। 1870 में क्लैरा स्वैन ने आम आदमी के बेहतर इलाज के लिए मिशन अस्पताल की स्थापना की थी। डॉ. पैरिल और डॉ. दास जैसे चिकित्सकों ने खुद को मरीजों की सेवा में झोंककर इस अस्पताल को नई बुलंदियों तक पहुंचाया। इसके बाद जिला अस्पताल और मिसेज स्टोप्स क्लीलिक की शुरूआत हुई।
छोटी-छोटी क्लीनिक पर बैठने वालों का था बड़ा नाम
उस दौर में जिला अस्पताल और मिशन अस्पताल के अलावा कोई बड़ा अस्पताल नहीं था। बड़े-बड़े नाम छोटे-छोटे क्लीनिक पर बैठकर मरीज देखा करते थे। हकीम रामजीमल, हकीम सईद, वैद्य नरोत्तम दास त्रिपाठी के अलावा डॉ. बीडी राय, डॉ. आगा, डॉ. गुहा की प्रैक्टिस खूब चला करती थी। धर्मदत्त वैद्य भी शहर का बड़ा नाम थे। उन्होंने प्रेमनगर रेलवे क्रॉसिंग के पास आयुवेर्दिक अस्पताल भी खोला। बाद में इसी अस्पताल के पास धर्मदत्त सिटी अस्पताल बना। दूर-दूर के लोग बरेली के वैद्य और डॉक्टरों के पास दवा लेने आया करते थे। दवा ऐसी कि एक खुराक खाते ही बीमार मरीज भला चंगा हो जाता था।
डॉ. वर्मा और डॉ. चंद्रा ने शहर मे की नई शुरूआत
शहर में क्लीनिकों की शुरुआत करने का श्रेय डॉ. सतीश चंद्रा और डॉ एपी वर्मा को जाता है। दोनों डॉक्टरों ने रामपुर गार्डन में मेडिकल नर्सिंग होम खोले। डा. सतीश चंद्रा पहले कसल्टेंट फिजीशियन थे और डॉ. एपी वर्मा सर्जन। डॉ. वर्मा का क्लीनिक कभी रामपुर गार्डन में उस जगह पर हुआ करता था जहां आज बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. गिरीश अग्रवाल का अस्पताल है। इसके बाद शहर में तेजी से अस्पताल खुलने का दौर शुरू हुआ। मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल, मेडिकल कालेज, डेंटल कालेज और पैरामेडिकल कालेजों ने शहर को मेडिकल हब के रूप में पहचान दी।
सात समुंदर पार भी चमके बांस बरेली का फर्नीचर
बरेली के बांस-बेंत फर्नीचर की कहानी उतनी ही पुरानी है जितना कि यह शहर। यह दूसरी बात है कि इसे कारोबार की शक्ल आजादी के बाद ही मिली। फर्नीचर कारोबारी आशुतोष अग्रवाल कहते हैं- 1955 के आसपास शहदाना में बांस के फर्नीचर का काम शुरू हुआ। इसके साथ ही कैंट के पदारथपुर गांव में लोगों ने साईकिल में लगने वाली बेंत की डलिया बनाना शुरू कीं। उस वक्त पदारथपुर के घर-घर में डलिया का काम होता था। इन डलियों की सबसे ज्यादा खपत दक्षिण भारत में थी। डलियों के काम ने रफ्तार पकड़ी तो लोगों ने फर्नीचर उद्योग में भी हाथ डाल दिया। फर्नीचर की बात करें तो शुरुआत छोटे स्टूलनुमा मोड़ो से हुई थी। उसके बाद तो कुर्सियां, पलंग, सोफे, रैक, शो पीस आदि भी बनने लगे।
इसी बाजार में गिरा था झुमका मोहब्बत वाला
पहले विशाल मेगा मार्ट, फिर आम्रपाली, उसके बाद फिनिक्स। और फिर एक के बाद एक सुपर स्टोर। बरेली के बाजार पिछले पांच-सात वर्षों में रंगीनियत की चादर ओढ़ने लगा है। ऊंची-ऊंची इमारतों में बने सुपर ब्रांड्स के एक्सक्लूसिव स्टोर। उन स्टोर में खड़े सूटेड-बूटेड सेल पर्सन। स्टोर में इंट्री से लेकर निकलने तक हर चीज का जुदा सा अंदाज। आपको अभिजात्य वर्ग की फील देने वाला अहसास। मगर क्या इसी बाजार में गिरा था वो झुमका मोहब्बत वाला। बरेली के ही व्यापारियों से बात करो तो वे इससे जरा भी इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनके लिए तो आज भी बरेली के असली बाजार का मतलब कोहाड़ापीर से निकलकर कुतुबखाना-बड़ा बाजार तक पसरी गलियां हैं। या फिर आलमगिरी गंज-बांस मंडी से बढ़ते हुए शाहमतगंज-सैलानी तक बिखरी गलियां। और इन सबके बाद सबसे न्यारा सिविल लाइंस।
मल्टीस्टोरी, कालोनियों में बदला तंग गलियों का शहर
40 और 50 के दशक में बरेली की पहचान सिर्फ गलियों के शहर के तौर पर होती थी। संकरी गलियों में लोग घर बनाकर रहते थे। बरेली का वजूद चंद मौहल्लों तक ही सिमटा था। सिविल लाइंस के अलावा बिहारीपुर, कसगरान, सुभाषनगर, नेकपुर और मणिनाथ में ही ज्यादा लोग रहते थे। 60 के दशक में बदलाव का दौर शुरू हो गया। घरों की मांग बढ़ी तो रियल एस्टेट का कारोबार भी रफ्तार पकड़ने लगा। कुछ ही बरसों में शहर में बड़ी-बड़ी टाउनशिप बसनी शुरू हो गईं। सुविधाएं मिलीं तो स्थानीय डेवलपर्स के साथ बाहरी कंपनियों ने हाथ मिला लिया। देखते ही देखते कभीभी गलियों का शहर कहे जाने वाला बरेली शहर मल्टीस्टोरी सिटी में तब्दील होता चल गया। लखनऊ और दिल्ली की दूरी बरेली से करीब 250 किलोमीटर है। बरेली से लखनऊ और दिल्ली समेत देश के तमाम महत्वपूर्ण स्थानों की शानदार कनेक्टिविटी है। रोडवेज के साथ रेलवे का यहां बड़ा नेटवर्क है। बरेली से देश के बड़े-बड़े शहरों के लिए ट्रेन मौजूद हैं। बरेली से सटे शहरों की कनेक्टिविटी शानदार है।