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13 बच्चों के अपहरण और हत्या की दोषी बहनों की फांसी पर लगी रोक, जानिए अदालत ने क्यों लिया ये फैसला ?

रेणुका शिंदे (48) और सीमा गावित (43) को बॉम्बे हाईकोर्ट ने राहत देते हुए फांसी न देने का फैसला सुनाया है। कोर्ट ने दोनों की फांसी की सज़ा को उम्रकैद में बदलने का फैसला लिया है। यह दोनों देश की पहली ऐसी महिलाएं थीं, जिन्हें फांसी की सजा मिली थी। दोनों बहनों पर आरोप है कि इन्होंने जून, 1990 से अक्टूबर, 1996 तक 6 साल में दर्जनभर बच्चों के अपहरण और हत्याएं कीं। आइए एक नजर डालते हैं इस मामले पर और जानते हैं कि ये दोनों महिलाएं कौन हैं, उनके अपराध कैसे सामने आए और आखिरकार वे कैसे फांसी के फंदे से बच गईं।

 

गावित बहनें कौन हैं?

 

दरअसल रेणुका और सीमा ने अपनी मां अंजना बाई के साथ मिलकर कम से कम 13 बच्चों का अपहरण किया था और उन्हें छोटे-मोटे अपराधों और भीख मांगने में इस्तेमाल किया था। वहीं किडनैप किए गए बच्चों में से कम से कम पांच को मार दिया गया क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर सहयोग करने से इनकार कर दिया या रोना बंद नहीं किया था। अंजनाबाई गावित पुणे के गोंधले नगर में दो बेटियों रेणुका (उर्फ रिंकू उर्फ ​​रतन) और सीमा (उर्फ देवकी) के साथ किराए के एक कमरे में रहती थीं।

 

पुलिस के अनुसार, वे तीनों पश्चिमी महाराष्ट्र में घूमा करती थीं, जिसमें मुंबई महानगर क्षेत्र भी शामिल था। यहां ये तीनों जुलूसों, त्योहारों और अन्य समारोहों में भाग लेती थीं और महिलाओं के गहने सहित कीमती सामान चुराकर अपना जीवन यापन करते थीं। 1990 में चोरी का एक प्रयास विफल होने के बाद, उन्होंने चोरियों को अंजाम देने के लिए बच्चों का इस्तेमाल करने का फैसला किया, ताकि आसानी से बच सकें।

 

पुलिस का कहना है कि 1990 से 1996 के बीच इन तीनों ने और रेणुका के पति किरण शिंदे ने पांच साल से कम उम्र के 13 बच्चों का अपहरण किया। पुलिस जांच में कहा गया है कि महिलाओं ने इन 13 में से नौ को मार डाला और कम से कम पांच के शवों को कोल्हापुर जिले में अलग-अलग जगहों पर ठिकाने लगा दिया। मामले में अभियोजकों के अनुसार, वे तीनों निर्दयी थे और अदालत में उनकी क्रूरता की झकझोर देने वाली कहानियां सामने आईं।

 

जैसे कि अंजना ने एक बच्चे के सिर को रोने से रोकने के लिए बिजली के खंभे से इस कदर लड़ाया कि उसकी मौत हो गई। बच्चे को बाद में संतोष के रूप में पहचाना गया। उन्होंने उसके शव को एक पुराने रिक्शा के ढेर के पास फेंक दिया। संतोष उन पहली हत्याओं का शिकार हुआ, जिनके लिए उन्हें दोषी ठहराया गया। एक अन्य उदाहरण में इन लोगों नें एक दो वर्षीय लड़के को उल्टा लटका दिया था और उसका सिर दीवार के खिलाफ बार-बार पटका था। एक और बच्चे को रेणुका और सीमा ने बाथरूम में डुबो कर मार डाला था।

 

वहीं उन्होंने एक और ढाई साल की बच्ची को मार कर उसके शरीर को एक बैग में भर दिया और एक सिनेमा थियेटर में ले गए। जहां उन्होंने एक फिल्म देखी और बाद में घर के रास्ते में शव को फेंक दिया था। अक्टूबर 1996 में आखिरकार उन्हें पकड़ लिया गया और उन्हें कोल्हापुर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।

 

कब हुई गिरफ्तारी और कैसे ठहराई गईं दोषी?

 

1998 में अंजना की एक बीमारी के कारण जेल में मृत्यु हो गई। वह उस समय 50 वर्ष की थी और मुकदमा शुरू होना बाकी था। 28 जून 2001 को कोल्हापुर के एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने दोनों बहनों को 13 नाबालिग बच्चों का अपहरण करने और उनमें से कम से कम छह, चार लड़कियों और दो लड़कों की हत्या के लिए दोषी ठहराया और उन्हें मौत की सजा सुनाई। बाद में 2004 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने इनकी सज़ा बरकरार रखी थी। वहीं 31 अगस्त 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने HC के फैसले को बरकरार रखा था। विशेष लोक अभियोजक उज्ज्वल निकम ने उस समय कहा था, “हमने हत्या की अवधि को छह साल तक सीमित कर दिया था। हालांकि यह उससे अधिक समय से चल रहा था। महिलाओं को याद नहीं था कि उन्होंने कितने बच्चों को मार डाला था।”

 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सीमा और रेणुका ने क्रमश: 10 अक्टूबर 2008 और 17 अक्टूबर 2009 को दया याचिका दायर की। 2014 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने उनकी दया याचिका खारिज कर दी थी और उसके बाद उन्होंने बॉम्बे एचसी से अपनी मौत की सजा को कम करने की मांग की थी। इस आधार पर कि राज्य ने उनकी दया याचिका की मांग में अस्पष्ट देरी के कारण एक असाधारण समय लिया था। शिंदे और गावित ने तर्क दिया कि राष्ट्रपति ने उनकी दया याचिकाओं को खारिज करने में पांच साल से अधिक समय लिया, जबकि इस तरह की याचिका को तीन महीने के भीतर निपटाया जाना चाहिए था।

 

बॉम्बे हाई कोर्ट ने आखिरकार क्यों बदल दी उनकी सजा?

 

अदालत ने 22 दिसंबर 2021 को मामले में अपनी सुनवाई समाप्त की और दोषी बहनों रेणुका शिंदे और सीमा गवित की फांसी की सजा को उम्र कैद में बदल दिया। उनकी फांसी की सजा पर दया याचिका दिए हुए सात साल का समय बीत चुका था, जिसके कारण कोर्ट ने ये फैसला लिया है। हाईकोर्ट ने अपने फैसले के लिए फांसी की सजा में हुई देरी को आधार बनाया है। कोर्ट ने कहा कि आरोपियो के गुनाह जघन्य हैं और माफी के लायक नहीं है, लेकिन प्रशासन की तरफ से की गई देरी को नकारा नही जा सकता है।

 

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार गावित बहनों के वकील माणिक मुलिक ने कहा कि यह आदेश दोषियों के लिए ‘न्याय’ था क्योंकि वे इतने वर्षों से “फांसी” के सदमे में जी रही थीं। उन्होंने कहा,”मुझे खुशी है कि उनकी मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया है। पिछले सात वर्षों से वे हर दिन मरने के डर और आघात में जी रहीं थीं।” बता दें कि दिल्ली स्थित अनुसंधान और वकालत समूह प्रोजेक्ट 39 ए के अनुसार, भारत में मृत्युदंड पर अब तक 404 कैदी हैं।

 

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