
सुनील बंसल: बीमार संगठन का वो वैद्य, जिसने बीजेपी को बनाया सत्ता का बाहुबली
इन रणनीतियों ने बदली बीजेपी की तकदीर
लखनऊ। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश सियासत में सुनील बंसल का नाम किसी परिचय का अब मोहताज नहीं है। उनके कुशल नेतृत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में जहां पर भाजपा एक बीमार और बेहद कमजोर संगठन के साथ तीसरे और चौथे नंबर पर आने के लिए संघर्ष करती थी, वहीं पर आज की तारीख में उसके आसपास भी कोई फटक नहीं पा रहा है। पिछले तीन दशक की सियासत पर नजर डालें तो यूपी में सपा और बसपा के उभार के बाद कांग्रेस जैसी पार्टी को मुंह की खानी पड़ी थी। जातिगत राजनीति की माहिर इन दोनों पार्टियों को चुनौती देना एवरेस्ट चढ़ने के बराबर माना जाता था। एक ऐसे दौर में सुनील बंसल ने भाजपा संगठन की जिम्मेदारी संभाली और आज की स्थिति यह है कि सपा और बसपा एकसाथ मिलकर भी भाजपा को चुनौती नहीं दे पा रहीं हैं। सुनील बंसल के बारे में अगर यह कहा जाए कि नेतृत्व और रणनीति के वो ऐसे कुशल वैद्य हैं, जो वेंटिलेटर पर पड़े भाजपा जैसे संगठन को अभयदान दे चुके हैं तो यह अतिशयोक्ति नहीं मानी जाएगी।
2014 के लोकसभा चुनाव में मिले बंसल और शाह
बात तबकि है जब मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार टू-जी स्पेक्ट्रम और अन्ना आंदोलन की वजह से संकट में घिरी हुई थी। पूरा देश बदलाव के दौर से गुजर रहा था और नया नेतृत्व तलाश रहा था। उसी दौर में भाजपा को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का उभार हुआ था। भाजपा की रणनीतियों के हिसाब से नरेंद्र मोदी पीएम पद के सबसे मुफीद उम्मीदवार थे। भाजपा को चेहरा तो मिल गया था, लेकिन बिना यूपी फतह के यह राह आसान नहीं थी। तब यूपी में अखिलेश के नेतृत्व में सरकार चल रही थी।भाजपा के पास संगठन बेहद कमजोर था और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था। संगठन को लेकर भाजपा उहापोह की स्थिति में थी। इस बीच आरएसएस ने सुनील बंसल को यूपी भेजने का निर्णय लिया। तब बंसल एबीवीपी के जयपुर इकाई के महासचिव हुआ करते थे। इधर यूपी के प्रभारी अमित शाह थे। बंसल और अमित शाह की मुलाकात पहली बार इसी चुनाव में हुई।
कुशल नेतृत्व से फहरा परचम
उसके बाद बंसल ने संगठन को लेकर काम करना शुरु किया और मात्र छह महीने में ही भाजपा तकदीर बदल गई। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता और यूपी के मजबूत संगठन ने करिश्मा दिखाते हुए 2014 के लोकसभा चुनावमें 80 में से 73 सीटें अपने नाम कर लीं। बसपा का तो सूपड़ा साफ हो गया और 2009 के लोकसभा में 20 सीटें जीतने वाली मायावती जीरो पर आ गईं। वहीं पांच सपा ने जीतीं तो कांग्रेस भी अपना रायबरेली और अमेठी बचाने में कामयाब रही। जबकि, 2009 में सपा ने 22 और कांग्रेस ने 21 सीटों पर परचम फहराया था।
जीत का सिलसिला अब तक जारी
सुनील बंसल कहा करते हैं कि यूपी की हवा में भी राजनीति होती है। यहां की नब्ज सुनील बंसल ने ऐसी पकड़ी कि जीत का सिलसिला अब तक बदस्तूर जारी है। कभी वेंटिलेटर पर पड़ा संगठन आज इतना तंदरुस्त है कि उसकी ताकत के आगे सभी राजनीतिक दल घुटने टेक चुके हैं। 2014 की ऐतिहासिक कामयाबी के बाद भी सुनील बंसल ने संगठन को लेकर काम जारी रखा। इस बीच 2017 के विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज गई। लेकिन, सपा और बसपा जैसी पार्टियों की चुनौती से भाजपा अनजान नहीं थी।
राजनीतिक पंडितों ने भविष्यवाणी कर दी थी कि इस चुनाव में बसपा पूर्ण बहुमत हासिल करेगी और सपा व भाजपा दूसरे तीसरे नंबर की लड़ाई लड़ेंगे। लेकिन, इन सारी चीजों से दूर सुनील बंसल की रणनीतियां ही अलग थीं। उन्होंने छोटे-छोटे राजनीतिक दलों जैसे सुभासपा, अपना दल, जनवादी पार्टी को साधा और उनको हिस्सेदारी देते हुए चुनाव में उतरने का निर्णय लिया। इस बीच अचानक से समीकरण बदले और पूरा यूपी एक बार फिर भगवामय हो गया। इस चुनाव में भाजपा ने 61 फीसदी मत हासिल करते हुए अकेले 312 सीटें यानी एक तिहाई बहुमत के साथ सत्ता हासिल की। भाजपा ही यह जीत ऐतिहासिक साबित हुई। इस चुनाव में सपा को 54 और बसपा को मात्र 19 सीटें हासिल हुईं।
इसके बाद 2019 की तैयारी भी सुनील बंसल ने शुरु कर दी। भाजपा अब लगभग अभेद किला बन चुकी थी। इस किले को भेदने के लिए सपा और बसपा जैसी धुर-विरोधी पार्टियां भी एकसाथ आने में नहीं हिचकीं। लेकिन, सुनील बंसल की रणनीति के आगे सपा और बसपा का महागठबंधन भी फुस हुआ। ये वही सपा और बसपा थी जिनकी यूपी में कभी तूती बोलती थी। लेकिन, सुनील बंसल की सांगठनिक कुशलता ने इनको भी फेल कर दिया।इस चुनाव में भाजपा को थोड़ा नुकसान हुआ, इसके बाद भी 62 सीटें अपने नाम करने में वो कामयाब रही। सुनील बंसल की सांगठनिक कुशलता ने विपक्षियों को बैकफुट पर धकेल दिया था। सपा और बसपा एकसाथ आकर भी मात्र 15 सीटें ही अपने नाम कर पाईं।
इसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने भाजपा में सेंध लगाई और ओपी राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे पिछड़े वर्ग के बड़े चेहरों को तोड़ लिया। मुस्लिमों में एकतरफा समाजवादी पार्टी का रुख किया। उसके बाद भी भाजपा ने अकेले 255 सीटें अपने नाम की और सहयोगियों के साथ मिलकर 273 सीटों पर विजय पताका फहराई।यह चुनाव बसपा के लिए बेहद नकारात्मक रहा और सभी सीटों पर लड़कर भी वह मात्र एक सीट जीत पाई। वहीं सपा ने अपने सहयोगियों के साथ 125 सीटें जीतीं, जिसमें सपा के 111 विधायक हैं।
इन रणनीतियों ने बदली बीजेपी की तकदीर
सुनील बंसल ने यूपी की कमान संभालने के बाद सांगठनिक बैठकों का दौर शुरु किया और पहली बार उन्होंने यूपी में दो करोड़ से ज्यादा कार्यकर्ता बनाने का लक्ष्य दिया। सुनील बंसल का यह लक्ष्य एवरेस्ट चढ़ने के बराबर था लेकिन उनकी कुशल रणनीतियों से पूरे प्रदेश में 1 लाख 47 हजार बूथ में 1 लाख 8 हजार बूथों पर भाजपा ने प्रभावी संगठन तैयार लिया। इसके अलावा शहरी पार्टी होने का ठप्पा भी सुनील बंसल ने हटाने की जिम्मेदारी ली और पंचायत चुनाव में उतरने का निर्णय लिया।
हालांकि, इस निर्णय का विरोध तो हुआ लेकिन यूपी प्रभारी ओम माथुर के साथ मिलकर काम किया और पंचायत चुनाव में 327 सीटें जीतीं। सुनील बंसल ने मतदाताओं को बूथ लेवल पर काम कर तो रिझाया ही साथ ही उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया सोशल मीडिया पर भाजपा की मौजूदगी हमेशा बनी रहे। सोशल मीडिया को उन्होंने मुख्य हथियार के रूप में अपनाया और उस पर काम किया। आज भी भाजपा के सोशल मीडिया की टीम का लोहा हर कोई मानता है। अखिलेश यादव ने तो स्वीकार कर लिया था कि भाजपा की सोशल मीडिया कैंपेनिंग के आगे वो कहीं भी नहीं टिकते हैं।