सावन माह श्री महादेव जी का महीना माना जाता है। सावन के महीने में शिव भक्त केसरिया वस्त्र पहन कर पवित्र नदियों का जल लेकर पैदल चलकर भगवान शिव को उनके स्थान पर चढ़ाने जाते हैं। इन सभी शिव भक्त को ही कावड़िया कहा जाता है। देश में कावंड़ यात्रा सैकड़ों वर्षों से चल रही है। पहले के समय में कांवड़ यात्रा पैदल ही की जाती थी लेकिन समय के साथ यात्रा करने के और कई सारे विकल्प शुरू हो गए हैं। कांवड़ यात्रा के पीछे कई पौराणिक कथाएं हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम को पहला कांवड़ यात्री माना जाता है। परशुराम जी ने पुरामहादेव को प्रसन्न करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जल ले जाकर भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। इसे ही हिंदू परंपरा में कांवड़ यात्रा की शुरूआत माना जाता है।
एक अन्य कथा के मुताबिक, समुद्र मंथन से निकले विष का पान करने से भगवान शिव नील कंठ कहलाए, लेकिन विष के प्रभाव से शिव जी का गला जलने लगा तब उन्होंने अपने परम् भक्त रावण का स्मरण किया। रावण ने कावंड़ से जल लाकर भगवान शिव का अभिषेक किया, जिससे शिव जी को विष के प्रभाव से मुक्ति मिली।
महादेव को भले ही भोले भंडारी कहा जाता है लेकिन उन्हें भी प्रसन्न करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। कांवड़ यात्रा करने वाले यात्रियों को कई कड़े नियमों का पालन करना होता है। इस यात्रा में शुद्धता का महत्व विशेष है। बिना स्नान के कावड़ को स्पर्श करना मना होता है। कावड़ यात्रा के दौरान चमड़े से बने किसी भी वस्तु का उपयोग वर्जित होता है। पूरी यात्रा के दौरान यात्री को शुद्ध मन से भगवान शिव का ही चिंतन करना होता है।
ये भी पढ़ें:- श्री राम की नगरी अयोध्या के इस घाट पर भगवान राम ने ली थी जलसमाधि !